कुंठाग्रस्त
अभी है ख़ून में पानी
अभी सैलाब देखेंगे,
अभी तो गूँज लो नारों
चिता में आग देखेंगे।
बजा लो मज़लिसों करतल
लगा लो जीत के नारे,
क़दम पर हुक्मरानों के
तुम्हारे ख़्वाब देखेंगे।
कल तू मरेगा तो
नुमाईशें होंगी मैय्यत की,
साबूत न बचूँगा मैं
सभी बारात देखेंगे।
ज़र्रे कर्ज़ में दबकर
अभी अब धूल बनते हैं,
कफ़न की ओढ़कर चादर
अभी वो रात देखेंगे।
ज़म्हूरियत हो गई रूसवा
वतन से लाडली-प्यारी,
ग़ुलामों के ग़ुलामी की
सभी सौग़ात देखेंगे।
मुट्ठी में भरा था मैं
कभी जो भींचकर माटी,
अभी तो राख़ बनने के
वो सब हालात देखेंगे।
वे कहते, जी रहा हूँ मैं
गगन में मुक्त पंक्षी-सा,
ठहर जा ओ रे तू पगले!
अभी एहसास देखेंगे।
लगा लो देशवालों तुम
ज़म्हूरियत का भले नारा,
माथे की शिकन पर रेंगते
अवसाद देखेंगे।
सुलाकर आत्मा अपनी
तू कब तक मौन बैठेगा?
जलती बस्तियों की राख़ में
हम-आप देखेंगे।
अमन की ओढ़ लो चादर
है मुमकिन भूल जाओगे,
लगेगी आग बस्ती में
जो क़त्लेआम देखेंगे।
सितार-ए-हिंद, जो हैं आज
धरती के नुमाईंदे
पड़ेगी थाप चकरी की
नया सरताज़ देखेंगे।
सुन लो आज! चौकस तुम
सत्ता के नुमाईंदों,
कुर्सी के पलटने का
सुनहरा ख़्वाब देखेंगे।
लेखक ग़ुम है गलियों में
ओढ़े जश्न का सेहरा,
अभी तो रो रहा हूँ मैं
तुझे बर्बाद देखेंगे।
इबारत कह गए 'राहत'
कहते शायरी अपनी,
मिला था ख़ून में माटी
अभी रक्ताभ देखेंगे।
परिंदों छोड़ दो उड़ना
बे-फ़ितरत हो गया मौसम,
सितमग़र बादलों के हम
अभी अंदाज़ देखेंगे।
वतन के नाम क़ुर्बानी
फिर हम कह चले ज़िंदा,
मुर्दों की हुई बस्ती
कहाँ आगाज़ देखेंगे!
बजा लो मंदिरों घंटे
अज़ानों की नुमाईश में,
लाशों की दबिश में हम
कहाँ इंसान देखेंगे!
'एकलव्य'
चित्र : साभार गूगल